याद आते हैं
वह
पेड़, पत्तियाँ, चौर और माटी,
जिनमें बहती जंगल की हवा
हमेशा खुशबु थी लाती।
याद आती हैं
वह
अनेक आवाज़ों की भनक
वाली जीवित चुप्पी,
बढ़ती हुई दिल की धड़कन
और नशीली जिस्मानी सिरहन।
याद आते हैं
वह
अनगिनत लहमें –
मीठी काली चाय में डुबोई
सुखी रोटी,
Beat-guard की खिलखिलाती
नन्ही सी बेटी;
कपड़ों में बसती धुयें की रूह,
कंटीली झाड़ी में जमा
न जाने किसका लहू;
दूर किसी पानी की कल-कल,
रपटों पर निकले
न जाने कितने पग-पल;
रात के अंधेरे में काली चट्टान सा
खामोश हाथी,
ठडं में ठिठुरता मैं और
मेरे साथी;
लंगूर की हूप और सांभर की धांक,
अदृष्य राजा की थी कुछ
अनोखी साख।
याद हैं
वह
निर्लज्ज हुक्मरानों की
बेखौफ मनमानी,
विस्थापित वन-वासियों की
असहाय कहानी;
उद्योगपतियों के कन्धों पर
बैठा सरकारी बन्दर, जो
देखता और दिखाता था
आने वाले कल का
भयानक इक मंज़र;
आज
कितना याद करूँ?
अब लगता नहीं है मन मेरा,
बस
मेरी साँसों को
मिला देना उस भीनी मिट्टी
में जहाँ
हर सुबह हो गुलाबी,
दोपहर पतझड़ी,
और साँझ
जैसे आँखें कोई
गीली।