कुछ दिनों पहले
खिड़कियों में लगे जंगले से
इक़ पोषीदा साया
मेरी नज़रों में इठलाया.
मैने देखा कि
मैं एक प्रकार का
द्रिश्यरतिक हूँ
और खुद को
दूसरों को देखता देख रहा हूँ.
बिखरे हैं सामने मेरे
चित्र खंड पहेली की तरह
असंख्य काँच के टूटे टुकड़े,
जिनमें भरे हैं
प्रश्न, समस्याएँ, चेहरे
और उनसे
लिपटी मजबूरियाँ;
प्रत्येक खंडित कण
इंतज़ार में है
उस क्षण का जब उसे योग्य तरीके
से रखा जाएगा और
दरारों की समुचित
सतह से प्रतिबिंबित होगी
वह छवि
जिसको पहचानने कि
कोशिश में शायद
मेरी परछाईं भी
कहीं
विलुप्त हो गई है.
कुछ दिनों पहले
छद्म भेष में मेरा
साया
खुद को देख रहा था.
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